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हम सब ने अपने जीवनकाल में कभी न कभी यह सुना होगा कि, किसी व्यक्ति का राहु और केतु नीच भाव में है और नीच राहु के कारण उसकी बुद्धि  भ्रमित रहती है और जिसके कारण वह व्यक्ति कभी अपने जीवन काल में अपार सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है। राहु को हमेशा से ही ईर्ष्या और नकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। और यदि उस व्यक्ति को राहु और केतु के दुष्प्रभावों को कम करना है और उनके प्रभावों को अपने प्रति सकारात्मक करना है तो उसे शनिवार का उपवास रखना  होगा, सरस्वती और राहु की पूजा करनी होगी और शनिवार शाम को गोमेद रत्न को धारण करना होगा। कुछ विद्वान जो इन पौराणिक कहानियों और किंवदतियों को मानते है उनका कहना है की जब भी पृथ्वी में कुछ घनघोर अनिष्ठ हुआ है वो हमेशा राहु शासित वर्ष में ही हुआ है और उनके अनुसार कोरोना महामारी जिससे आज पूरा विश्व लड़ रहा है वो भी राहु और अन्य ग्रहों के किसी विशिष्ट विन्यास में आने से ही हुआ है।

जैसा की हम जानते है की हमारे सौरमण्डल में 8 ग्रह है बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल,बृहस्पति, शनि, यूरेनस, नेप्तुने। विज्ञान की मदद से हमने इन सभी ग्रहों का और पुरे सौर मंडल का अच्छी तरह से विश्लेषण और मानचित्रण किया है यहाँ तक की मंगल, बृहस्पति, शनि पर तो हमने कृत्रिम उपग्रह और रोबोट भी भेजे है। तो  प्रश्न यह उठता है की ये राहु और केतु कौन से ग्रह है और इनका स्थान सौर मंडल में कहाँ है, इनका मूल इतिहास में कहाँ छिपा हुआ है? और क्या यह पृथ्वी और हमारे जीवन पर कुछ प्रभाव डालते हैं? इन सब प्रश्नों के उतर ढ़ूँढ़ने के लिए हमें इतिहास में कुछ हजार वर्ष पीछे जाना होगा और समय के साथ पौराणिक और वैज्ञानिक विकास को समझना होगा।   

जब से मानव ने सीधा चलना सीखा है, उसने आकाश की ओर देखा और हमेशा आश्चर्यचकित हुआ है। वो हमेशा सोचता था की ये पिंड जो आकाश में तैर रहे है इनका औचित्य क्या है? इन पिंडों का हम मनुष्यों पर और पृथ्वी पर क्या प्रभाव है? उसने हमेशा इन प्रश्नों के उतर खोजने की कोशिश की है।

जिज्ञासु

समय के साथ  आकाश तो वही रहा है लेकिन ,हमारा दृष्टिकोण उसके प्रति बदल रहा है। आज ब्रह्मांड के प्रति हमारा दृष्टिकोण काफी वैज्ञानिक है और हम इसके गूढ़ रहस्य को समझने की ओर अग्रशर है लेकिन, पहले के समय में चीजें अलग थीं। लोगों का मानना ​​था कि वे रचनाकार की दृष्टि में विशेष हैं  और लौकिक वातावरण उनके और निर्माता के बीच एक कड़ी है। प्राचीन समय में लोगों का मानना था की भूगर्भिक(geocentric) और मानवजनित(anthropocentric) ब्रह्मांड में, निर्माता निश्चित रूप से पृथ्वी वासियों के साथ संवाद करेगा। जिस तरह से निर्माता अपना संदेश भेज सकता है वह आकाश में चल रहे अवरोधों और पिंडों के माध्यम से होगा। सात भूगर्भीय ग्रह एक पूर्वानुमान कक्षा में घूम रहे है और इनका अध्ययन बहुत आराम से हो सकता है। इसके विपरीत, उल्का और धूमकेतु जैसी घटनाएँ जो बिना किसी चेतावनी के प्रकट होती हैं, उन्हें ब्रह्मांडीय नकारात्मक ऊर्जा और कुछ हद तक आपदा के रूप में वर्गीकृत किया गया था। पहले, ग्रहणों को भी आपदा के रूप में वर्गीकृत किया गया था। जैसा कि हम देखेंगे, भले ही समय के साथ इन सब घटनाओं के कारण हमें समझ में आ गए है, लेकिन उनके साथ जुड़ा डर अभी भी ग़ायब नहीं हुआ।

इंटरनेट सूचना का एक बहुत बड़ा स्रोत है परन्तु इंटरनेट गलत ज्ञान का भी बड़ा स्रोत है। ऑन-लाइन उल्लेख किया गया है कि राहु का सर्वप्रथम विवरण ऋग्वेद में है, परन्तु यह जानकारी पूर्णतः सत्य नहीं है। ऋग्वेद में  स्वर्भानु नाम के राक्षस का उल्लेख है जो सूर्य को निगल जाता है। बदले में सूर्य  अपनी मुक्ति के लिए ऋषि अत्री से अपील करता है।  सूर्य की मुक्ति के लिए अत्री देवताओं की स्तुति और आराधना के माध्यम से स्वर्भानु की जादू कला को ग़ायब कर देते है। संभवत: ग्रहण को ख़तम करने के लिए अत्री ने मंत्रों के माध्यम से देवताओं की स्तुति की थी। ऋग्वेद में दिए इस  विवरण का बहुत महत्व है क्योंकि ऋग्वेद काल में ब्रह्मांडीय व्यवस्था को बाधित करने में ग्रहण को एक दानव के काम के रूप में देखा गया था और पुराने ब्रह्मांडीय क्रम को  बहाल करने के लिए कुछ कार्य करने की जरूरत थी (अत्री ने मन्त्रों का जाप करके ब्रह्मांडीय क्रम को बहाल किया था)। अत्री वंश का ऋग्वेद रचना में बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा  था। ऋग्वेद का पाँचवाँ मंडल पूरी तरह से अत्रि वंश के द्वारा ही लिखा गया था। ऊपर लिखी बातों का उल्लेख पहले के ब्राह्मण साहित्य जैसे: तांड्य, गोपथ, शतपथ और शंकायन में कई जगह पर किया गया है। एक असुर के रूप में स्वर्भानु का नाम बहुत लंबा नहीं चला क्योंकि अथर्ववेद में किसी कारण से राहु के रूप में इस दानव का नाम बदल दिया गया था। यह उल्लेखनीय है कि अथर्ववेद के लेखकों ने स्वयं को ऋग्वेद द्वारा नियोजित नामकरण से बाध्य नहीं माना। कुछ समय के लिए स्वर्भानु और राहु दोनों नाम उपयोग बना रहा, लेकिन अंततः राहु ज्यादा प्रचलित हुआ। स्वर्भानु नाम इतिहास से इस तरह नष्ट हुआ की इसका उपयोग वैदिक काल के बाद लगभग ख़तम  हो  गया था। रामायण काल में हमें स्वर्भानु और राहु दोनों नाम का जिक्र मिलता है।  यहाँ तक की जब कैकई जब दसरथ और राम के बीच वियोग का कारण बनी तो दसरथ ने कैकई को राहु के समान बताया क्योंकि राहु ईर्ष्या को भी दर्शाता है। महाभारत काल आते आते स्वर्भानु शब्द का उपयोग साधारण बोल चाल में किया जाने लगा था क्योंकि उस समय में ग्रहण लगाने वाले दानव की जगह  राहु ने ले ली थी, यहां तक की भगवान कृष्ण के एक पुत्र का नाम भी स्वर्भानु  था। राहु का उल्लेख बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। बौद्ध साहित्य में लिखित है की भगवान बुद्ध की आराधना करके चंद्रमा और सूर्य अपने आप को राहु के चुंगल से मुक्त करते है।

ऋग्वेद, और इसके बाद अथर्ववेद के अनुसार केतु को प्रकाश की किरण के रूप में नियोजित करते हैं। आमतौर पर केतु का मतलब आग और धुएँ का संयोजन होता है।  अथर्ववेद धूमकेतु को मृत्यु के एक अंश के रूप में बताता है।क्योंकि अथर्ववेद में धूमकेतु की तुलना अंतिम संस्कार की चिता से उठने वाले धुएँ  से  की गयी है।  अथर्ववेद  में  केतु का उपयोग बहुवचन में किया गया है, जैसे कि अरुणा  केतवा। यह  संदर्भ धूमकेतु या उल्काओं का प्रतीत होता है। वराहमिहिर की बृहत्संहिता, जो 6 वीं शताब्दी ईस्वी में रची गई थी उसमें बहुत पुरानी सामग्री का विवरण मिलता है, जहाँ वराहमिहिर ने खगोलविद गर्ग द्वारा अरुणा नामक 77 धूमकेतुओं के एक वर्ग का उद्धरण (reference) दिया  हैं, जो गहरे लाल रंग के होते हैं।

ग्रहणों के बहुत विस्तृत अध्ययन के बाद यह पता चला की एक ग्रहण जो किसी विशिष्ट विन्यास में आज हुआ है वो अब 18.6 वर्षों के बाद उसी विन्यास  में आएगा। इतनी सब जानकारी इक्कठा करने के बाद किसी ने यह सोचा होगा की अब हमें ग्रहण को राक्षस से जोड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। परन्तु यह हुआ नहीं बल्कि इसके विपरीत , राक्षस अब नियुक्ति के द्वारा आए। ग्रहणों के गणितीय सिद्धांत को तुरंत ज्योतिषीय साहित्य के साथ जोड़ दिया गया था, जिसमें दो नोड्स को ग्रहों के रूप में वर्गीकृत किया था। चूंकि वे काल्पनिक थे इसलिए उन्हें छाया ग्रह करार दिया गया था। ग्रहणों के इस गणितीय सिद्धांत को 499 ई ० में आर्यभट्ट (जन्म 476 CE) द्वारा अपने प्रभावशाली सिद्धान्तिक ग्रंथ आर्यभटीयम में शामिल किया गया था। पूर्ण सूर्य और चंद्र ग्रहण तब होते हैं जब चंद्रमा अपने कक्षीय नोड्स में से किसी एक पर होता है। ये नोड ग्रहों के विपरीत दिशा में चलते हैं और एक कक्षा को पूरा करते हैं।

वराहमिहिर (587 ई निधन) आर्यभट्ट का  समकालीन था  और अनुयायी भी था। वराहमिहिर कई पुस्तकों के लेखक हैं। वराहमिहिर के कार्यों को बताने के लिए  वास्तविक पाठ का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है। बृहज्जातकम (2.2 -3 ) में वह राहु को आरोही नोड(ascending node) के रूप में और केतु को अवरोही नोड  (descending node) के रूप में दिखाते हैं। और इसी तरह वे उन्हें ग्रहों की सूची में शामिल करते हैं, इस प्रकार वराहमिहिर नौ ग्रहों या नव ग्रह की अवधारणा को पेश करते हैं। दो नोड्स 180 डिग्री अलग-अलग हैं तो यदि हमें किसी एक नोड के बारे में पता हो तो हमें स्वतः ही दूसरे नोड के बारे में पता चल जाएगा। इसके बावजूद भी दोनों नोड्स को अलग-अलग सूचीबद्ध किया गया था ताकि ग्रह संख्या को नौ तक लाया जा सके जो पवित्र माना जाता था।

राहु पहले से ही ग्रहण से जुड़ा था। समझ में आने के बाद राहु को आरोही नोड के रूप में नामाकिंत किया गया था। लेकिन दूसरे नोड को केतु क्यों कहा गया था? पहले के आकाश और पृथ्वी के बीच का स्थान पूरी तरह से तीन शब्दों से वर्णित किया गया था: ग्रह, धूमकेतु और उल्का (केतु), और ग्रहण (राहु)। जब दो चंद्र नोड्स को चित्र में लाया गया था, तो राहु के रूप में एक नाम देना स्वाभाविक था। परन्तु केतु को यहाँ एक नई भूमिका दी गई थी, ताकि आकाशीय हलचलों को अभी भी पहले की तरह तीन शब्दों में वर्णित किया जा सके।

ग्रहणों के पौराणिक उपचार में दो अलग-अलग चरण हैं। (i) यदि दानव राहु, सूर्य और चंद्रमा पर ग्रहण का कारण बनाता है, तो वे फिर से दोबारा कैसे दिखाई देते हैं? इसका उत्तर महाभारत, विष्णुपुराण और अन्य जगहों पर वर्णित प्रसिद्ध कथा समुद्र मंथन में मिलता है  है। कहानी में, राक्षस राहु का सिर कटा हुआ है, जो जीवित बच जाता है। यह राहु सिर है जो ग्रहण का कारण बनता है। चूंकि शेष शरीर ग़ायब है, इसलिए सूर्य और चंद्रमा के लिए एक पलायन मार्ग है  ताकि वो ग्रहण से बाहर आ सके। (ii) यहाँ तक हमें शेष बचे धड़ की कोई आवश्यकता नहीं है पर जब नव ग्रह प्रणाली की शुरुआत होती है इस सिर रहित शरीर को ग्रह केतु के रूप में पहचान मिलती है। राक्षस राहु का ‘पहला जीवित चित्रण’ मध्यप्रदेश के विदिशा जिले के उदयगिरि की  गुफा संख्या 19 के द्वार पर बने ‘समुद्र मंथन’ के नक्काशी  चित्रण में मिलता है, जिसकी जाँच करने पर हमें यह पता चलता है के वे 430-450 ईस्वी के है  (ध्यान दें कि यह आर्यभट्ट से पहले का समय है)। राहु के देवता के रूप में शुरुआती चित्रण हमें बुंदेलखंड क्षेत्र के कुछ गांव से मिलता है। संभवतः इन सभी नक्काशियों का श्रेय राजा जयनाथ  के शासनकाल और उस दौरान के मूर्ति कला धुरंधरों को जाता है।

निशान

यदि यह  निर्धारित तिथियां सही हैं, तो यह उल्लेखनीय है कि राहु का ग्रहीकरण आर्यभट्ट के सिद्धांत के एक दशक के भीतर हुआ था। केतु एक ग्रह और  देवता के रूप में लगभग 600  ईस्वी या उसके कुछ समय बाद उत्तर प्रदेश में दिखाई देता है। पूर्वी राज्य उड़ीसा में, केतु को दसवीं शताब्दी तक ग्रह नहीं गिना जाता था, इस प्रकार उस समय तक कुछ भू-भाग पर केवल आठ ग्रह को  माना जाता था। यहाँ तक की ये आश्चर्य की बात है की राहु बर्मा  में याहू के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो की ओडिशा में बोले जाने वाला शब्द था।आर्यभट्ट राहु या केतु का उपयोग नहीं करता है; वह और उसके बाद कई अन्य लोग एक नोड को पाता कहते हैं। ब्रह्मगुप्त अपने लंबे काल में बौद्धिक विकास के संकेत प्रदर्शित करता है। आर्यभट्ट के विपरीत एक स्थिति लेते हुए, उन्होंने 628 ईस्वी में तैयार अपने ब्रह्मगुप्तासिद्धांत में, ग्रहण के कारण के रूप में राक्षस राहु पर अपना विश्वास व्यक्त किया था। उनके बाद के पाठ, खंडखडीका (665 ईस्वी ) में हमें ग्रहणों की गणना बिना राहु या केतु नाम के बल्कि तकनीकी शब्दावली “पाता” के उपयोग के साथ मिलती हैं। देवाचार्य द्वारा 689 ईस्वी में रचित खगोलीय पुस्तिका करनारत्न में राहु को ग्रहण छाया और आरोही नोड (node) के रूप में दर्शाया गया है। ग़ौरतलब है कि एक स्थान पर राहु का जिक्र राहुमुख (राहु सिर) के तौर पर किया जाता है, जिसके कारण एक खगोलीय पाठ में केतु का उल्लेख करने का कोई कारण नहीं बचता। क्योंकि नोड के रूप में आरोही नोड (node) राहु  उल्लेख होते ही हमें केतु की पूर्ण जानकारी स्वतः ही ज्ञात हो जाती है। और केतु को पहले धूमकेतु और उल्का के रूप में समझा जाता था जिस कारण भी बहुत जगह पर हमें केतु का उल्लेख नहीं मिलता। केतु की कल्पना, उसके चित्रण को मस्तिष्क पटल में बिठाना और उसको अवधारणा बनाना बहुत अधिक कठिन था। जबकि राहु को समुद्र मंथन कहानी के दिनों से अच्छी तरह से परिभाषित किया गया था, छठी शताब्दी से ही केतु द्वारा ग्रहण की भूमिका पर जोर दिया गया था।

Credit: https://en.wikipedia.org/wiki/Lunar_node

यह मान लेना की विज्ञान और पौराणिक कथाओं को जोड़कर सिर्फ भारत वर्ष में ही बताया गया है तो यह अवधारणा बिलकुल गलत है क्योंकि विज्ञान और पौराणिक कथाओं को जोड़कर समाज के सामने प्रस्तुत करने का काम दुनिया की लगभग हर एक विकासशील सभ्यता ने किया है। प्राचीन समय में विज्ञान और पुराणिक कथाओं को जोड़कर बताना इसलिए भी ज़रूरी हो जाता था क्योंकि उस समय बहुत कम लोग होते थे जो ब्रह्माण्ड और इस दुनिया के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते थे। अधिकतम लोग ये मानते थे की जो भी घटनाएँ हमारे ब्रह्माण्ड (बिजली कड़कना, बारिश होना, प्राकृतिक आपदा) में हो रही है वो किसी परम शक्तिशाली (देवताओं) के आदेश पर हो रही है। इसलिए आम लोगों तक विज्ञान को पहुँचाने के लिए विज्ञान को पौराणिक कथाओं और देवताओं के साथ जोड़कर बताना बहुत आवश्यक हो जाता था। इसलिए आप सब पाएंगे की लगभग हर सभ्यता में हमें विज्ञान और धर्म का मिश्रण मिलता है जहाँ पर इन पौराणिक कथाओं में कुछ बहुत ही मूलभूत विज्ञान मिलता है और वहीं कुछ बहुत ही गैर वैज्ञानिक और जादुई बातें मिलती है जो अवश्य ही  पौराणिक कथाओं को रोचक बनाने और लोगों की ईश्वरीय भावनाओं को ठेस ना पहुंचे इसलिए जोड़ी गयी होंगी। जैसे आप पाएंगे की ईरानी और अरबी पौराणिक कथाओं में आरोही नोड (ascending node) राहु और अवरोही नोड (descending node) केतु को ड्रैगन अल-द्वाज़ह्र के सिर और की पुंछ के रूप में प्रस्तुत किया गया हैं। केतु के रूप में धूमकेतु को अभी तक भुलाया नहीं गया है बल्कि वह अल-कायद के रूप में जाना जाता है।

राहु और केतु को चीन में गणितीय खगोल विज्ञान के भाग के रूप में तांग राजवंश (Tang Dynasty 618-907 ईस्वी) के दौरान चीन में पेश किया गया था। जबकि राहु को चंद्र के आरोही नोड (ascending node) के अर्थ में बनाए रखा गया था बल्कि केतु का इस्तेमाल चंद्रमा और पृथ्वी के सबसे अधिकतम दूरी (apogee) के रूप में किया गया था। ग्रहण गणना की परंपरा अपेक्षाकृत हाल के दिनों तक निर्बाध रूप से की जारी रही है, बल्कि उस समय भी और आज भी केवल कुछ ही लोग हैं जो ऐसा करने में सक्षम हैं। हमें इतिहास में ऐसे बहुत से साक्षय मिलते  हैं जहाँ हमें राजाओं द्वारा खगोलविदों को ग्रहण की सही गणना करने के लिए पुरस्कृत किया गया था। उन खगोलविदों के द्वारा जो परिणाम हमें उस समय मिले वो काफी हद तक सटीक थे। ग्रहण के शुरू होने की गणना में केवल +4 मिनट की त्रुटि थी, ग्रहण के अपने चरम पर पहुँचने के समय में -23 मिनट की त्रुटि थी और ग्रहण के अंत की गणना में -52 मिनट की त्रुटि थी। पारंपरिक पंचांग में अभी भी ग्रहों की स्थिति की गणना के लिए पुराने कलन विधि (algorithm) का उपयोग होता हैं, लेकिन वर्तमान समय के आधुनिक तरीकों से हम ग्रहणों की गणना बिना किसी त्रुटि के साथ कर पा रहे हैं और अधिक बारीकी से इन ब्रह्मांडीय घटनाओं का अध्ययन कर पा रहे हैं।

अंत में यही लिखना सार्थक है कि शुरुआती वैदिक काल से राहु और केतु शब्द लगातार उपयोग में रहे हैं, लेकिन उनका अर्थ स्थिर नहीं रहा है। 499 ईस्वी से पहले, राहु एक दानव था जबकि केतु धूमकेतु और उल्का जैसी घटनाओं को दर्शाता था और उस समय तक दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है। 499 ईस्वी के बाद, राहु और केतु नव ग्रह का हिस्सा बन जाते हैं, जबकि इसके अलावा केतु का पुराने अर्थों में भी उपयोग किया जाता रहा है। राहु और केतु के पुराने संदर्भों की व्याख्या करते समय, हमें लौकिक संदर्भ को ध्यान में रखना चाहिए। राहु और केतु 499 ईस्वी से पूर्व  नव-ग्रह से संबंधित नहीं थे, क्योंकि उस समय तक नव ग्रह की अवधारणा मौजूद नहीं थी।  शास्त्रों, खगोल विज्ञान और पौराणिक कथाओं के बीच एक दिलचस्प रिश्ता है। खगोल विज्ञान एक बौद्धिक विषय के रूप में आगे बढ़ने के दौरान भी शास्त्रों के साथ संबंध बनाए रखने की कामना करता है। खगोल विज्ञान में पौराणिक कथाएं जमी नहीं हैं बल्कि  जब भी कोई नई वैज्ञानिक खोजें हुईं पौराणिक कथाओं को उसके अनुसार संशोधित किया गया।


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