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हम सब ने बचपन से ही अपने आसपास देखा है कि बहुत लोग शिवलिंग की पूजा करते हैं। भारत वर्ष  के हर भाग के लोगों में शिवलिंग के प्रति अटूट श्रद्धा देखी जा सकती है। अगर हम भारतीय इतिहास में झांके तो हमें देखने को मिलता है कि शिवलिंग की पूजा आज से नहीं बल्कि कई हज़ार वर्ष पूर्व से होती आ रही है। न सिर्फ भारत बल्कि कम्बोडिआ, इंडोनेशिया, फिजी, अफगानिस्तान जैसे एशिया के कई देशों में हमें सैंकड़ो , हज़ारों वर्ष पुराने शिवलिंग मिलते हैं। और आज भी दुनिया के हर हिस्से में शिवलिंग पूजन के लिए मंदिर बनाये गए हैं। ऊपरी निगाहों से जब हम शिवलिंग को देखते हैं तो इसका आकार स्त्री योनि और पुरुष लिंग के सामान प्रतीत होता है। एक बहुत बड़ा लोगों का समूह शिवलिंग पूजन को एक आडंबर से अधिक कुछ नहीं मानता, वहीँ एक बहुत बड़ा लोगों का समूह शिवलिंग को ईश्वर मानता है। क्या आपके मन में कभी यह विचार नहीं आया कि शिवलिंग की पूजा हज़ारों वर्षों से क्यों होती आ रही है , शिवलिंग  पूजन का महत्व क्या है , क्या यह सच में योनि और लिंग को दर्शाता है? आज हम ऐसे ही कुछ प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने का प्रयास करेंगे। इसलिए मेरा आपसे आग्रह है की शिवलिंग के प्रति कोई भी विचारधारा बनाने से पहले आप अपने मस्तिष्क चक्षुओं को पूर्णतः खोलकर इस लेख को पढ़ें और सोचें तत्पश्च्चात शिवलिंग पर कोई राय बनाएं।

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अगर हम शिवलिंग को ऊपरी निगाहों से देखें तो लगता है की ये योनि और लिंग को दर्शाता है , और बहुत से लोग शिवलिंग की इस विवेचना को अश्लील और फूहड मानते हैं। चलिए अब हम शिवलिंग के दर्शन को समझने का प्रयास करते हैं। शिवलिंग को हम ब्रह्मांडीय ऊर्जा स्तम्भ के रूप में देखते हैं, जो ब्रह्माण्ड की उतप्ति , अस्तित्व और इसकी नियति को दर्शाता है। शिवलिंग का आधार भाग ब्रह्मा यानी सृष्टि को दर्शाता है और उससे थोड़ा ऊपरी भाग विष्णु यानि सृष्टि की स्थिति को दिखाता है।  इन के ऊपर योनि और लिंग उस ऊर्जा को दर्शाते हैं जो इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पति के लिए उत्तरदायी है।  यह योनि और लिंग दोनों ऊर्जा के प्रतीक है, ऊर्जा जो न बनाई जा सकती है और न ही नष्ट की जा सकती है।  यही ऊर्जा दर्शाती है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और सृष्टि  इसी से उत्पन हुए हैं और अंत में इसी में सम्माहित हो जायेंगे। योनि के ऊपर लिंग का अंडाकार होना ब्रह्माण्ड की चक्रीय प्रकृति को दर्शाता है जिसका  मतलब है ब्रह्माण्ड निरन्तर उत्पन होता है और खत्म होता है, लेकिन जो हमेशा, हर जगह, हर समय विद्यमान है वही ऊर्जा है।  ऊर्जा अनंत और निर्गुण है। मनुष्यजाति का सम्पूर्ण अस्तित्व ही योनि और लिंग के मिलन की ऊर्जा के कारण ही है।  अगर हम मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो शिव लिंग नारीत्व और पौरुष के सामंजस्य का प्रतीक है, ये नारी और पुरुष का ही मेल है जो सम्पूर्ण मानव के अस्तित्व के लिए उत्तरदायी है।  न अकेला पुरष और न ही अकेली स्त्री, इस ब्रह्मण्ड की निरन्तरता को बनाये रखने में  समर्थ हैं, इसलिए ब्रह्माण्ड के क्रम को बनाये रखने के लिए दोनों पुरुष और नारी का सद्भाव में रहना आवश्यक है। इसलिए ये भी कहना गलत नहीं होगा की शिवलिंग अस्तित्व की पूर्णता का प्रतीक है। न सिर्फ भारतीय हिन्दू सभ्यता बल्कि नारी और पुरुष के इसी सामंजस्य को जापानी दर्शन यिन और यान के दर्शन के रूप में बताता है। 

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भारतीय हिन्दू सभ्यता में नाग (सांप) को एक दैवीय दर्जा प्राप्त है क्यूंकि इसके अनुसार नाग अपनी ऊर्जा को व्यर्थ के कामों में न जाया करके अपनी एकाग्रता को बढ़ाने और खुद पर पूर्णतः काबू पाने में लगा देता है। जब नाग खुद को पूर्णतः समझ लेता है तब वह एकाग्रता के शिखर पर होता है जिसके फलस्वरूप उसके मस्तक पर मणि प्रकट होती है। यह मणि नाग के आत्मबोध और आत्म नियंत्रण का प्रतीक है। यही कारण है कि भारतीय योग और ध्यान ग्रंथों में मनुष्य कुंडलिनी शक्ति को ढाई कुंडली नाग के रूप में दर्शाया गया है। शिवलिंग के ऊपर लिपटा नाग भी उसी ध्यान अवस्था को दर्शाता है। भारतीय हिन्दू ग्रन्थ इस बात पर बल देते हैं  कि नारी और पुरुष का  शारीरिक मिलन आवश्यक है परन्तु उससे भी अधिक आवश्यक है कि मनुष्य खुद को पूर्णतः समझे और खुद पर सम्पूर्ण नियंत्रण पाए। शिवलिंग पर लिपटा नाग दर्शाता है की मनुष्य को अपनी चेतना के शिखर पर पहुंचना होगा तभी पूर्ण और पवित्र ज्ञान रुपी ऊर्जा की मणि उसके मस्तक पर सुशोभित होगी। इसी ढाई कुंडली नाग का सबसे निचला भाग जो योनि और लिंग के आधार से संपर्क में है वो मनुष्य चेतना के सबसे निचले स्तर को दर्शाता है जिसे भारतीय योगिक ग्रंथो में मूलधारा चेतना चक्र कहते हैं। लेकिन हिन्दू सभ्यता के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य का अपनी सभी इन्द्रियों को नियंत्रण में लाना आवश्यक  है।  ज्ञान की प्राप्ति के लिए चेतना का विकास होना आवश्यक है जो योग और ध्यान से संभव है , जैसे जैसे मनुष्य अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता जाता है वैसे वैसे उसकी चेतना का स्तर बढ़ता जाता है। योग और ध्यान के द्वारा जब मनुष्य अपनी सभी इन्द्रियों और इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है तब जाके वह चेतना के शिखर पर पहुंचता है जिसे योगिक ग्रंथो में सहस्रारा चक्र या ब्रह्म चेतना चक्र कहा जाता है।  ब्रह्म चेतना चक्र के सक्रीय होने के फलस्वरूप मनुष्य को पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है। शिवलिंग पर लिपटा नाग मनुष्य की इसी मूलधारा चेतना चक्र से ब्रह्म चेतना चक्र तक की यात्रा को दर्शाता है। इसलिए हम यह कह सकते है की शिवलिंग मनुष्य की पूर्णता को परिभाषित करता है।  

चलिए अब हम शिवलिंग पूजन के पीछे छुपे मनोविज्ञान को समझते हैं , हम सब ने एक कहावत सुनी हुई है कि बिना कष्ट किये फल नहीं मिलता।  इसलिए शिवलिंग पर हम पूजन के दौरान जो भी अर्पण करते हैं वो दर्शाता है कि यदि हमें अपनी चेतना के शिखर पर पहुंचना है तो हमें हर प्रकार के कष्ट सहने होंगे , हमें अपना समय, ऊर्जा का सदुपयोग करना होगा और आराम को त्यागना पड़ेगा।  इसलिए हम यह कह सकते हैं कि किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जो कुछ भी हमें त्यागना और छोड़ना पड़ता है उसी त्याग के मनोविज्ञान को शिवलिंग पूजन दर्शाता है। इसलिए हम यह कह सकते हैं कि शिवलिंग का दर्शन पूर्ण रूप से ज्ञान का प्रतीक है जो मनुष्य को जीवन की सत्यता और पूर्णता को दर्शाता है। मेरे अनुसार जिन भी महान विभूतियों ने शिवलिंग पूजन को शुरू किया है वो अवश्य ही बहुत ज्ञानवान और दार्शनिक प्रवृति के रहे होंगे। 

अंत में मैं आपसे आपके विचारों के बारे में जानना चाहूंगा की आप क्या सोचते हैं शिवलिंग और इससे जुड़े ज्ञान के बारे में , आप की दृष्टि में शिवलिंग पूजन को शरू करने बाले लोग क्या थे , ठग या ज्ञानी ? आप अपने विचार कमेन्ट के द्वारा दे सकते हैं। 


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